क्यों की जाती है परिक्रमा?
सनातन धर्म में परिक्रमा का बड़ा महत्त्व है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि किसी स्थान या किसी व्यक्ति या किसी वृक्ष के चारों ओर गोलाकार में घूमना। इसको ‘प्रदक्षिणा करना’ भी कहते हैं यह 16 प्रकार के पूजन का एक भाग है एक अंग है। प्रदक्षिणा प्रथा को वैदिक काल से ही व्यक्ति, देवमूर्ति, पवित्र स्थानों को प्रभावित करने या सम्मान प्रदर्शन का कार्य समझा जाता रहा है। दुनिया के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है।
हमने इसके पूर्व एक वीडियो के माध्यम से बताया है कि हज यात्रा इस्लाम धर्म के अस्तित्व के बहुत पहले से होती आ रही है, वह माता का मंदिर था जिसकी परिक्रमा श्रद्धालु करते थे लोगो को इस्लामिक बना दिया लेकिन उन्होंने मूर्ति पूजा विभिन्न देवता छोड़ दिए लेकिन पद्धति नही बदली और मोहम्मद की बात नहीं मानी तो हज को उन्हें अपनी किताब में लेना पड़ा।पहले परिक्रमा में मूर्ति के आस पास शुभ वस्तुएं, जौ, अक्षत,फूल, आदि चलते चलते माता पर चढ़ाते थे ,अब उसी जगह को शैतान का घर कहकर पत्थर मारते हैं पर परिक्रमा उतनी ही हैं। ऐसे ही बोध गया में भी बौद्ध परिक्रमा करते हैं।
‘प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं’ अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है।प्रदक्षिणा में व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से जाना जाता है। देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है।
क्यों की जाती है परिक्रमा?
वैज्ञानिक कारण:
प्रदक्षिणा का प्राथमिक कारण सूर्यदेव की दैनिक चाल से संबंधित है। जिस तरह से सूर्य प्रात: पूर्व में निकलता है, दक्षिण के मार्ग से चलकर पश्चिम में अस्त हो जाता है, उसी प्रकार ऋषियों के अनुसार अपने धार्मिक कृत्यों को बिना बाधा विध्न सम्पादनार्थ प्रदक्षिणा करने का विधान किया गया। सूर्य के समान यह हमारा पवित्र कार्य पूर्ण हो।
जब कोई शुभ कर्म हवन, पूजा, यज्ञ, आदि किया जाता है तो वहां पर सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है जो वहां के वातावरण में चारो तरफ फैला होता है और आप अगर उसकी परिक्रमा करके सांसों द्वारा अंदर ले जाते हो वह शरीर के अंदर की नकारात्मकता को दूर करता है, शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है।
आध्यात्मिक कारण : संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र किसी न किसी तारे की परिक्रमा कर रहा है। यह परिक्रमा ही जीवन का सत्य है। व्यक्ति का संपूर्ण जीवन ही एक चक्र है। इस चक्र को समझने के लिए ही परिक्रमा जैसे प्रतीक को निर्मित किया गया। भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मानते हैं कि हमने सारी सृष्टि की परिक्रमा कर ली है। ऐसा माना जाता है।
यह शरीर पांच तत्वों से बना है जिसको प्रकृति कहते हैं और आत्मा परमात्मा का अंश है, इसीलिए किसी भी शुभ कार्य करने को जाते समय अगर एक परिक्रमा माता पिता की करके जाय जाये तो आपके अंदर अद्भुत ऊर्जा का संचार हो जाता है, नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर बढ़ जाते हैं , विद्वानों का मत है भगवान की परिक्रमा से अक्षय पुण्य मिलता है, सुरक्षा प्राप्त होती है और पापों का नाश होता है।
यस्त्रि: प्रदक्षिणं कुर्यात् साष्टांगकप्रणामकम्। दशाश्वमेधस्य फलं प्राप्रुन्नात्र संशय:॥’
पग-पग चलकर प्रदक्षिणा करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। सभी पापों का तत्क्षण नाश हो जाता है। प्रदक्षिणा करने से तन-मन-धन पवित्र हो जाते हैं व मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। जहां पर यज्ञ होता है वहां देवताओं साथ गंगा, यमुना व सरस्वती सहित समस्त तीर्थों आदि का वास होता है। जो लोग प्रदक्षिणा साष्टांग प्रणाम करते हुए करते हैं, वे दश अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करते हैं। जो लोग सहस्रनाम का पाठ करते हुए प्रदक्षिणा करते हैं, वे सप्त द्वीपवती पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त करते हैं।
प्रदक्षिणा या परिक्रमा करने का मूल भाव स्वयं को शारीरिक एवं मानसिक रूप से भगवान के समक्ष समर्पित कर देना भी है। तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा
काशीधाम, मथुरा, अयोध्या, प्रयाग, चित्रकूट,की पंचकोसी, ब्रह्ममंडल की चौरासी कोस, ब्रज में गोवर्धन पूजा की सप्तकोसी,नर्मदाजी की अमरकंटक से समुद्र तक छ:मासी, इस प्रकार की विविध परिक्रमाएं भूमि में पद-पद पर दंडवत लेटकर पूरी की जाती है। यही 108-108 बार प्रति पद पर आवृत्ति करके वर्षों में समाप्त होती है। विवाह में वर वधू को अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा करने के बाद ही विवाह सम्पन्न होता है, यहाँ तक मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार करने के समय भी प्रदक्षिणा करना होता है संसार एक चक्र है , चक्र की तरह सबकुछ घूमता है, भगवान् का सुरदर्शन चक्र ब्रह्माण्ड का प्रतीक है, ठीक वैसे ब्रह्माण्ड में सब कुछ गोल है घूम कर वही आना है जैसे आप प्रदक्षिणा करके जहाँ से चले हो वही वापस आना है यही संसार है संसार चक्र है।
परिक्रमा किसकी करे,? कितनी करें? कैसे करे?
नारद पुराण के अनुसार ” पूजा के समय सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा करने की परंपरा है। सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा की संख्या अलग-अलग बताई गई है,
मुख्यतः की जाने वाली परिक्रमा
‘एकाचण्ड्या रवे:सप्त त्रि:कुर्वति विनायके। हरेश्चतस्र: कर्तव्या: शिवस्यार्धप्रदक्षिणा।’
अर्थात , गणेशजी की तीन, विष्णु भगवान की चार एवं शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
1. माता पिता एक परिक्रमा होती है/
2. जगत जननी माता दुर्गा की सिर्फ एक परिक्रमा होती है, उनसे शक्ति (Power ) का बरदान माँगा जाता है।
3. जगत के प्रत्यक्ष देवता भगवन सूर्य की सात प्रदक्षिणा का विधान बताया गया है जिससे सारी मनोकामनाएं जल्द ही पूरी हो जाती हैं।
4. गणेश जी की तीन परिक्रमा करके उनसे रिद्धि सिद्धि ज्ञान की मांग करते हैं।
5. भगवन विष्णु की चार प्रदक्षिणा की जाती है जिससे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
6. शिव जी की सिर्फ आधी परिक्रमा ही होती है।
7. जिन देवताओ का विधान नहीं मालूम हो तो ३ परिक्रमा करनी चाहिए।
8.तिलक लगाने के बाद यज्ञ देवता अग्नि या वेदी की तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) लगानी चाहिए। ये तीन प्रदक्षिणा जन्म, जरा और मृत्यु के विनाश हेतु तथा मन, वचन और कर्म से भक्ति की प्रतीक रूप, बाएं हाथ से दाएं हाथ की तरफ लगाई जाती है।
9.पवनपुत्र श्री हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है। भक्तों को इनकी तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए।
10.सोमवती अमावास्या को महिलाएं पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करती हैं
अब आपका अगला प्रश्न होगा की भगवन शिव की आधी परिक्रमा क्यों?
शिवजी की आधी परिक्रमा करने का विधान है, वह इसलिए कि शिव के सोमसूत्र को लांघा नहीं जाता है। जब व्यक्ति आधी परिक्रमा करता है तो उसे चंद्राकार परिक्रमा कहते हैं। शिवलिंग को ज्योति माना गया है और उसके आसपास के क्षेत्र को चंद्र। आपने आसमान में अर्ध चंद्र के ऊपर एक शुक्र तारा देखा होगा। यह शिवलिंग उसका ही प्रतीक नहीं है बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड ज्योतिर्लिंग के ही समान है।
‘अर्द्ध सोमसूत्रांतमित्यर्थ: शिव प्रदक्षिणीकुर्वन सोमसूत्र न लंघयेत इति वाचनान्तरात।’
सोमसूत्र : शिवलिंग की निर्मली को सोमसूत्र भी कहा जाता है। शास्त्र का आदेश है कि शंकर भगवान की प्रदक्षिणा में सोमसूत्र का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है। सोमसूत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि भगवान को चढ़ाया गया जल जिस ओर से गिरता है, वहीं सोमसूत्र का स्थान होता है।
क्यों नहीं लांघते सोमसूत्र : सोमसूत्र में शक्ति-स्रोत होता है अत: उसे लांघते समय पैर फैलाते हैं और वीर्य निर्मित और 5 अन्तस्थ वायु के प्रवाह पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे देवदत्त और धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट पैदा हो जाती है जिससे शरीर और मन पर बुरा असर पड़ता है अत: शिव की अर्ध चंद्राकार प्रदक्षिणा ही करने का शास्त्र का आदेश है।
इसीलिए शिवलिंग की परिक्रमा हमेशा बाईं ओर से शुरू कर जलाधारी के आगे निकले हुए भाग यानी जलस्रोत तक जाकर फिर विपरीत दिशा में लौटकर दूसरे सिरे तक आकर परिक्रमा पूरी करें।
परिक्रमा के नियम :
परिक्रमा प्रारंभ करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए (लम्बी दुरी की परिक्रमा पर यह नियम लागु नहीं होता)।
परिक्रमा वहीं पूर्ण करें, जहां से प्रारंभ की गई थी। परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नहीं मानी जाती।
परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत न करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें।
परिक्रमा पूर्ण करने के पश्चात भगवान को दंडवत प्रणाम करना चाहिए।
इस प्रकार परिक्रमा करने से अभीष्ट एवं पूर्ण लाभ की प्राप्ति होती है उम्मीद करते हैं की परिक्रमा क्यों करते है आपको समझ में आ गया होगा अस्तु जय सियाराम॥