jab atma sharir chodti hai

मृत्यु के बाद आत्मा कहां रहती है? दसवां,यमघंट रहस्य। marne ke bad kya hota

Gyan ki baatein

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जीवन की तरह ही मृत्यु भी एक अटल सत्य है! आज के इस लिख में हम जानेगे की किस प्रकार जब व्यक्ति का अंत आता है तो उसका शरीर कैसे व्यवहार करता है ! इस लेख में दिए गये अनुभव गरुण पुराण में भी वर्णित है ! हिन्दू संस्कारो के अनुसार जब व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो माना जाता है कि कुछ संस्कार इसी लिए किये जाते है ताकि अतृप्त आत्मा को दूसरे लोक में जाने में कठिनाई न हो ! उसका अंतिम सफर आसान हो सके तो जानते है कि कैसा लगता है व्यक्ति को अंतिम समय में !

मित्रों जब किसी की आत्मा शरीर छोड़ती है तो उस मनुष्य को पहले ही पता चल जाता है । ऐसे में वह स्वयं भी हथियार डाल देता है अन्यथा उसने आत्मा को शरीर में बनाये रखने का भरसक प्रयत्न किया होता है और इस चक्कर में कष्ट झेल रहा होता है । 


अब उसके सामने उसके सारे जीवन की यात्रा चल-चित्र की तरह चल रही होती है । उधर आत्मा शरीर से निकलने की तैयारी कर रही होती है इसलिये शरीर के पाँच प्राण एक ‘धनंजय प्राण’ को छोड़कर शरीर से बाहर निकलना आरम्भ कर देते हैं । 

प्राण कितने प्रकार के होते हैं, pran kitne prakar ke hote hain

 प्राण पांच प्रकार के होते है जो इस प्रकार है :

 1. अपान:_ अपनयति प्रकर्षेण मलं निस्सार्यति अपकर्षति च शक्तिम इति अपान:।

मतलब शरीर में इस प्राण का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है यह शरीर से दूषित पदार्थो को निष्कासित करने का काम करता है इसी की वजह से मल मूत्र कफ रज वीर्य आदि का विसर्जन होता है।प्रसव क्रिया भी इसी प्राण शक्ति के माध्यम से होती है।

2. समान:- रसं समं नियति सम्यक प्रकारेण नियति इति समान:।

इस प्राण का काम शरीर में निर्मित होने वाले विभिन्न रसों को सही स्थान पर ले जाना। इसी की क्रियाशीलता से पाचन क्रिया होती है और इसी की वजह से शरीर की ऊर्जा और सक्रियता ज्वलंत रहती है।

3. प्राण: प्रकर्षेंण अनियति प्रकर्णे वा बलं ददाति आकर्षति च शक्तिं स प्राण:।

इसका काम स्वच्छ वायु को स्वांस के रूप में खींचना है और शरीर को बल प्रदान करना है। असलियत में प्राण से प्राण मिलता है शरीर सजीव होता है।

4. उदान: उन्नयति य: उदान्यति वा तदान:।

यह शरीर को कड़क बनाए रखने और उठाए रखने का काम करता है अर्थात यह आपको खड़े रहने की शक्ति प्रदान करता है गिरने नही देता। बाहरी नकारात्मक शक्तियों के बिच शरीर को स्थिर खड़ा रखने का काम उदान प्राण ही करता है।

5. व्यान: व्यापनोति शरीर य: स ध्यान:।

यह प्राण शरीर में रक्त संचार श्वास ज्ञान तंतु को बनाए रखने का काम करता है। यही प्राण आपका दिमाग संचालित करता है।

पांच उप प्राण होते हैं: 

वह है नाग, कूर्मां, देवदत्त, कृकला और धनंजय।

यह पांचों मुख्य प्राणों के सहायक होते हैं।

वेदों में प्राणतत्व की महिमा का गान करते हुए उसे विश्व की सर्वोपरि शक्ति माना गया है।

महर्षि अथरवा ने अथर्व वेद में कहा है:

प्राणों विराट प्राणो देष्ट्री प्राणं सर्व उपासते। प्राणो:सूर्य चंद्रमा:प्राण माहु: प्रजापतिं।

अर्थात:

प्राण विराट है सबका प्रेरक है इसी से सब उसकी उपासना करते हैं प्राण ही सूर्य चंद्र और प्रजापति है।

 प्रणाय नमो यस्य सर्व मिदम वशे।

यो भूत: सर्वस्येश्वरो यस्मिन सर्व प्रतिष्ठम।

अर्थात जिसके आधीन यह सारा जगत है उस प्राण को नमस्कार है वही सबका स्वामी उसी में सारा जगत प्रतिष्ठित है।

आयुष्यक्षणमेकोपि न लभ्यः स्वर्णकोटिभिः

स वृथा नीयते येन तस्मै मूढात्मने नमः।।

इसी संदर्भ में , भक्त कहता है…

कृष्ण त्वदीय पदपंकजपंजरांके अद्यैव मे विशतु मानस राजहंसः

प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते।।

श्रीकृष्ण कहते हैं..

Bhagwan shrikrishan कहते हैं….

कफवातादिदोषेन मद्भक्तो न च मां स्मरेत्

तस्य स्मराम्यहं नो चेत् कृतघ्नो नास्ति मत्परः

ततस्तं मृयमाणं तु काष्ठपाषाणसन्निभं 

अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।।

प्राण, आत्मा से पहले बाहर निकलकर आत्मा के लिये सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं जो कि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का वाहन होता है । धनंजय प्राण पर सवार होकर आत्मा शरीर से निकलकर इसी सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है ।

बहरहाल अभी आत्मा शरीर में ही होती है और दूसरे प्राण धीरे-धीरे शरीर से बाहर निकल रहे होते हैं कि व्यक्ति को पता चल जाता है । 

उसे बेचैनी होने लगती है, घबराहट होने लगती है । सारा शरीर फटने लगता है, खून की गति धीमी होने लगती है । सांँस उखड़ने लगती है । बाहर के द्वार बंद होने लगते हैं ।

 अर्थात् अब चेतना लुप्त होने लगती है और मूर्च्छा आने लगती है । चैतन्य ही आत्मा के होने का संकेत है और जब आत्मा ही शरीर छोड़ने को तैयार है – तो चेतना को तो जाना ही है और वो मूर्छित होने लगता है

बुद्धि समाप्त हो जाती है और किसी अनजाने लोक में प्रवेश की अनुभूति होने लगती है – यह चौथा आयाम होता है । फिर मूर्च्छा आ जाती है और आत्मा एक झटके से किसी भी खुली हुई इंद्रिय से बाहर निकल जाती है । इसी समय चेहरा विकृत हो जाता है । यही आत्मा के शरीर छोड़ देने का मुख्य चिह्न होता है

शरीर छोड़ने से पहले – केवल कुछ पलों के लिये आत्मा अपनी शक्ति से शरीर को शत-प्रतिशत सजीव करती है – ताकि उसके निकलने का मार्ग अवरुद्ध न रहे (ग्रामीण भाषा में इसे सन्नीकाल कहते है) सबको लगता है कि यह अब बिल्कुल स्वस्थ है किंतु वह इस शरीर में रहने का आत्मा अंतिम क्षण होता है।

 – और फिर उसी समय आत्मा निकल जाती है और शरीर खाली मकान की तरह निर्जीव रह जाता है ।

ये प्राण, आत्मा से पहले बाहर निकलकर आत्मा के लिये सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं जो कि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का वाहन होता है ।

धनंजय प्राण पर सवार होकर आत्मा शरीर से निकलकर इसी सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है । बहरहाल अभी आत्मा शरीर में ही होती है और दूसरे प्राण धीरे-धीरे शरीर से बाहर निकल रहे होते हैं कि व्यक्ति को पता चल जाता है । 

उसे बेचैनी होने लगती है, घबराहट होने लगती है । सारा शरीर फटने लगता है, खून की गति धीमी होने लगती है । सांँस उखड़ने लगती है । बाहर के द्वार बंद होने लगते हैं ।  अर्थात् अब चेतना लुप्त होने लगती है और मूर्च्छा आने लगती है । चैतन्य ही आत्मा के होने का संकेत है और जब आत्मा ही शरीर छोड़ने को तैयार है – तो चेतना को तो जाना ही है और वो मूर्छित होने लगता है । 

बुद्धि समाप्त हो जाती है और किसी अनजाने लोक में प्रवेश की अनुभूति होने लगती है – यह चौथा आयाम होता है ।
फिर मूर्च्छा आ जाती है और आत्मा एक झटके से किसी भी खुली हुई इंद्रिय से बाहर निकल जाती है । इसी समय चेहरा विकृत हो जाता है । यही आत्मा के शरीर छोड़ देने का मुख्य चिह्न होता है । 

शरीर छोड़ने से पहले – केवल कुछ पलों के लिये आत्मा अपनी शक्ति से शरीर को शत-प्रतिशत सजीव करती है – ताकि उसके निकलने का मार्ग अवरुद्ध न रहे (ग्रामीण भाषा में इसे सन्नीकाल कहते है) सबको लगता है कि यह अब बिल्कुल स्वस्थ है किंतु वह इस शरीर में रहने का आत्मा अंतिम क्षण होता है। – और फिर उसी समय आत्मा निकल जाती है और शरीर खाली मकान की तरह निर्जीव रह जाता है । 

आत्मा को लेने कौन आता है, Atma shrir chhodne ke baad kahan jati hai

इससे पहले घर के आसपास कुत्ते-बिल्ली के रोने की आवाजें आती हैं । इन पशुओं की आँखे अत्याधिक चमकीली होती है  जिससे ये रात के अँधेरे में तो क्या सूक्ष्म-शरीर धारी आत्माओं को भी देख लेते हैं । 

जब किसी व्यक्ति की आत्मा शरीर छोड़ने को तैयार होती है तो उसके अपने सगे-संबंधी जो मृतात्माओं के रूप में होते है  उसे लेने आते हैं और व्यक्ति उन्हें यमदूत समझता है और कुत्ते-बिल्ली उन्हें साधारण जीवित मनुष्य ही समझते हैं और अनजान होने की वजह से उन्हें देखकर रोते हैं और कभी-कभी भौंकते भी हैं ।आप सबने व्यवहार में देखा भी होगा कि मरने को तैयार मनुष्य अक्सर अपने पूर्वजों को देखता है जो वास्तव में उसको लेने के लिए आए होते हैं कृपया ध्यान रखिए प्राणी सिर्फ उन्ही पूर्वजों को देखता है जिनको पुनर्जन्म नही मिला है, और मुक्त भी नही हुए हैं, वह पितृ लोक में रह रहे होते हैं।

कुछ आत्माएं जो न तो शुक्ष्म शरीर पा सकी जो पितृ लोक में जा सके, न मुक्त हो सकी वह प्रेत रूप में भटक रही होती हैं वह प्राणी के पास नही जाती और अगर जाती भी हैं तो पितृ लोक से आई शुक्षम शरीर वाले पूर्वजों से दूर रहती हैं।

 

शरीर के पाँच प्रकार के प्राण बाहर निकलकर उसी तरह सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं । जैसे गर्भ में स्थूल-शरीर का निर्माण क्रम से होता है । 

सूक्ष्म-शरीर का निर्माण होते ही आत्मा अपने मूल वाहक धनंजय प्राण के द्वारा बड़े वेग से निकलकर सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है ।

पापी व्यक्ति की आत्मा कहाँ से निकलती है, paapi vyakti ki atma kahan se nikalti hai

आत्मा शरीर के जिस अंग से निकलती है उसे खोलती, तोड़ती हुई निकलती है । जो लोग भयंकर पापी होते है उनकी आत्मा मूत्र या मल-मार्ग से निकलती है । जो पापी भी हैं और पुण्यात्मा भी हैं उनकी आत्मा मुख से निकलती है । जो पापी कम और पुण्यात्मा अधिक है उनकी आत्मा नेत्रों से निकलती है और जो पूर्ण धर्मनिष्ठ हैं, पुण्यात्मा और योगी पुरुष हैं उनकी आत्मा ब्रह्मरंध्र से निकलती है ।
अब तक शरीर से बाहर सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हुआ रहता है । लेकिन ये सभी का नहीं हुआ रहता । जो लोग अपने जीवन में ही मोहमाया से मुक्त हो चुके योगी पुरुष है  उन्ही के लिये तुरंत सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हो पाता है । 
अन्यथा जो लोग मोहमाया से ग्रस्त हैं परंतु बुद्धिमान हैं, ज्ञान-विज्ञान से अथवा पांडित्य से युक्त हैं ,  ऐसे लोगों के लिये दस दिनों में सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो पाता है ।

दसगात्र का श्राद क्यों करते है, dasgratr ka shraad kyon karte hai

हिंदू धर्म-शास्त्र में – दस गात्र (dasgratra) का श्राद्ध और अंतिम दिन मृतक का श्राद्ध करने का विधान इसीलिये है कि – दस दिनों में शरीर के दस अंगों का निर्माण इस विधान से पूर्ण हो जाये और आत्मा को सूक्ष्म-शरीर मिल जाये ।
 ऐसे में, जब तक दस गात्र का श्राद्ध पूर्ण नहीं होता और सूक्ष्म-शरीर तैयार नहीं हो जाता आत्मा, प्रेत-शरीर में निवास करती है ।
 अगर किसी कारणवश ऐसा नहीं हो पाता है तो आत्मा प्रेत-योनि में भटकती रहती है । 
एक और बात, आत्मा के शरीर छोड़ते समय व्यक्ति को पानी की बहुत प्यास लगती है । शरीर से प्राण निकलते समय कण्ठ सूखने लगता है । ह्रदय सूखता जाता है और इससे नाभि जलने लगती है । लेकिन कण्ठ अवरुद्ध होने से पानी पिया नहीं जाता और ऐसी ही स्थिति में आत्मा शरीर छोड़ देती है । प्यास अधूरी रह जाती है । इसलिये अंतिम समय में मुख में ‘गंगा-जल’ डालने का विधान है । 
इसके बाद आत्मा का अगला पड़ाव होता है शमशान का ‘पीपल’ ।
 यहाँ आत्मा के लिये ‘यमघंट’ बंँधा होता है । जिसमें पानी होता है । यहाँ प्यासी आत्मा यमघंट से पानी पीती है जो उसके लिये अमृत तुल्य होता है । इस पानी से आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है । 
 हिन्दू धर्म शास्त्रों में विधान है कि – मृतक के लिये यह सब करना होता है ताकि उसकी आत्मा को शान्ति मिले । अगर किसी कारण वश मृतक का दस गात्र(dasgratra) का श्राद्ध न हो सके और उसके लिये पीपल पर यमघंट(yamghant) भी न बाँधा जा सके तो उसकी आत्मा प्रेत-योनि में चली जायेगी और फिर कब वहांँ से उसकी मुक्ति होगी, कहना कठिन होगा l
*हांँ,  कुछ उपाय अवश्य हैं। पहला तो यह कि किसी के देहावसान होने के समय से लेकर तेरह दिन तक  निरन्तर भगवान् के नामों का उच्च स्वर में जप अथवा कीर्तन किया जाय और जो संस्कार बताये गये हैं उनका पालन करने से मृतक भूत प्रेत की योनि, नरक आदि में जाने से बच जायेगा , लेकिन यह करेगा कोन ?*
*यह संस्कारित परिजन, सन्तान, नातेदार ही कर सकते हैं l अन्यथा आजकल अनेक लोग केवल औपचारिकता निभाकर केवल दिखावा ही अधिक करते हैं l*
*दूसरा उपाय कि मरने वाला व्यक्ति स्वयं भजनानंदी हो, भगवान का भक्त हो और अंतिम समय तक यथासंभव हरि स्मरण में रत रहा हो ।*
इसी संदर्भ में , भक्त कहता है…
“कृष्ण त्वदीय पदपंकजपंजरांके अद्यैव मे विशतु मानस राजहंसः
प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते।।”
श्रीकृष्ण कहते हैं….
कफवातादिदोषेन मद्भक्तो न तु मां स्मरेत् 
अहं स्मरामि तद्भक्तं ददामि परमां गतिम्।।
फिर श्रीकृष्ण को लगता है कि यह मैं कुछ अनुचित बोल गया।
पुनश्च वे कहते हैं….
कफवातादिदोषेन मद्भक्तो न च मां स्मरेत्
तस्य स्मराम्यहं नो चेत् कृतघ्नो नास्ति मत्परः
ततस्तं मृयमाणं तु काष्ठपाषाणसन्निभं 
अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।।
*तीसरा भगवान के धामों में देह त्यागी हो, अथवा दाह संस्कार काशी, वृंदावन या चारों धामों में से किसी में हुआ हो l*
*स्वयं विचार करना चाहिये कि हम दूसरों के भरोसे रहें या अपना हित स्वयं साधें l*
 जीवन बहुत अनमोल है, इसको व्यर्थ मत गँवायें। एक – एक पल को सार्थक करें। हरिनाम का नित्य आश्रय लें । मन के दायरे से बाहर निकल कर सचेत होकर जीवन को जियें, न कि मन के अधीन होकर। 
यह मानव शरीर बार- बार नहीं मिलता। 

🙏

🙏

जीवन का एक- एक पल जो जीवन का गुजर रहा है ,वह फिर वापस नहीं मिलेगा। इसमें जितना अधिक हो भगवान् का स्मरण जप करते रहें,   हर पल जो भी कर्म करो बहुत सोच कर करें। क्योंकि कर्म परछाईं की तरह मनुष्य के साथ रहते है। इसलिये सदा शुभ कर्मों की शीतल छाया में रहें।
 वैसे भी कर्मों की ध्वनि शब्दों की धवनि से अधिक ऊँची होती है।

अतः सदा कर्म सोच विचार कर करें। जिस प्रकार धनुष में से तीर छूट जाने के बाद वापस नहीं आता, इसी प्रकार जो कर्म आपसे हो गया वह उस पल का कर्म वापस नहीं होता चाहे अच्छा हो या बुरा।

इसलिये इससे पहले कि आत्मा इस शरीर को छोड़ जाये, शरीर मेँ रहते हुए आत्मा को यानी स्वयं को जान लें और जितना अधिक हो सके मन से, वचन से, कर्म से भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण का ध्यान, चिंतन, जप कीर्तन करते रहें, निरन्तर स्मरण से हम यम पाश से तो बचेंगे ही बचेंगे, साथ ही हमें भगवत् धाम भी प्राप्त हो सकेगा जो कि जीवन का वास्तविक लक्ष्य है ।
आयुष्यक्षणमेकोपि न लभ्यः स्वर्णकोटिभिः
स वृथा नीयते येन तस्मै मूढात्मने नमः।।

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