सर्प बसे वहां बिल नहीं, चंदा है न चांदनी,गंगा हैं पर जल नही, तो ऐसी कहां बनी।

Adarsh Dharm

sarp base jahan bill nahi

सर्प बसे वहां बिल नहीं, चंदा है न चांदनी,गंगा हैं पर जल नही, तो ऐसी कहां बनी।

जय सियाराम मित्रो

स्वागत है आप सबका आदर्श धर्म सनातन धर्म  के प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम में। आज का प्रश्न है श्रीमान सिंगर निरंजन बासवा का जिसमे उन्होंने यह पहेली पूछी है और इसका अर्थ संदर्भ जानना चाहा है।

अब आपकी पहेली का शब्दार्थ

सर्प बसे वहां बिल नहीं = सर्प नागों का जहां वाश है किंतु उनके रहने के लिए कोई बिल या घर नहीं है।

चंदा है पर चांदनी नही= चांद तो है किंतु चांदनी उसका प्रकाश नही है

गंगा है पर जल नही = गंगा नदी तो हैं पर उसका जल नही है वहां, 

ऐसी बनती कहां बनी = ऐसा संयोग कहां पर बनता है।

 मित्र आपकी पहेली भगवान शिव का गुणगान करती हैं। क्योंकि ऐसा संयोग सिर्फ एक ही स्थान पर बनता है और वह है भगवान शिव का शरीर।

उनके शरीर पर बड़े बड़े नाग सर्प लिपटे हैं जो उनके शरीर पर ही रहते हैं उनके अपने घर या बिल में नहीं रहते। नागों को धारण करने के कारण ही उनको नागेश्वर कहते हैं। उन्होंने अपने मस्तक पर चंद्रमा धारण किया हुआ इसीलिए उनको चंद्रशेखर कहते हैं। उनकी जटाओं में माता गंगा का निवास है इसीलिए उनको गंगाधर कहते हैं। तो मित्र ऐसी बनती सिर्फ और सिर्फ भोले शंकर के पास ही बनती है।

 चूंकि चंद्रमा का एक भाग शिव जी के मस्तक पर उनको शीतलता प्रदान करने के लिए है चंद्रमा उनके क्रोध और हलाहल विष के (जो उन्होंने लोक कल्याण के लिए पी लिया था जिसके कारण वह नीलकंठ कहलाए) प्रभाव को कम करता है चांद की चांदनी तो सूर्य से ही होगी उसकी अपनी कोई चांदनी नही होती।

सर्प जब उन्होंने अपने शरीर में लपेट रखे हैं तो विचारे अपने बिल में कैसे जा सकते हैं। गंगा जी जटा में उलझी हैं उन्ही के अंदर प्रवाहित होती रहती हैं तो बाहर उनकी मर्जी के बिना आ ही नहीं सकती। चूंकि यह तीनों ही शिवजी के अंग बन चुके हैं तो ठीक वैसे ही काम करते हैं जैसे शरीर के अन्य अंग काम करते हैं

 रुद्राष्टक में आता है

स्फुरन मौली कल्लोलिनी चारु गंगा

लसद भाल बालेंदु कंठे भुजंगा।

चलत कुंडलम भ्रु सुनेत्रम विशाल्म

प्रसन्नानम नील कण्ठम दयालम।

मृगाधीष चर्माम्बरम मुंड मालम

प्रियम शंकरम, सर्वनाथम भजामि।

नंदी की सवारी नाग अंगीकार धारी 

नित संत सुखकारी नीलकंठ त्रिपुरारी हैं

कला उजियारी लखी देव सो निहारी

अस गावैं वेद चारी सो हमारी रखवारी है

शंभू बैठे है शिवाला, भंग पीवै सो विशाला

अरु रहै मतवाला अहि अंग पै चढ़ाए हैं

मारा है जलंधर अरु त्रिपुर संहारा जिन

जारा है काम जाके शीश गंग धारा है

धारा है अपार जासु महिमा तीन लोक 

भाल जाके इन्दु जाके सुषमा को सारा है।

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