आरती और आरति में क्या अंतर है, difference between aarti and arti,

Adarsh Dharm Gyan ki baatein

देखने में  यहां सिर्फ एक छोटी और एक बड़ी ई का फर्क मात्र है किसी भी आम आदमी से खास आदमी से अचानक पूछोगे तो वह यही कहेगा भैया आरती का मतलब तो आरती है क्योंकि आज के जमाने में पूजा पाठ मंत्र तंत्र सब खत्म हो चुके हैं हिंदुओ के पास एक दो श्लोक हैं जो रूटीन में पूजा स्थानों में पंडित लोग बोलते हैं सरल हैं और सभी लोग उनको सुनते सुनते दोहराते हुए बोलते हैं तो याद हो गए हैं और कही भी कोई भी पूजा हो तो शिवानंद स्वामी की लिखी आरती संग्रह से आरती कर लेंगे, और उस आरती के थाल में पैसे चढ़ाकर पूजा का समापन कर देते हैं।

हमारे यहां जो पूजा की गई , व्रत रखा गया ,जिस विधि से पूजा करनी चाहिए, यह पूर्व काल में लोगो ने की थी उस पूजा विधि को न कोई बताता है और न कोई पूछता है न जानना चाहता है। उदाहरण के लिए हिंदुओ के घर पर अक्सर हर छोटे बड़े त्योहार और शुभ अवसर पर आयोजित होने वाली श्री सत्यनारायण व्रत कथा की बात करते हैं। यह कथा स्कंध पुराण के रेवा खंड में वर्णित है इसको सर्व प्रथम महर्षि सूत जी महाराज ने नैमिष धाम में 88000 ऋषियों को सुनाया था, उसमे ऋषियों ने पूछा था महाराज आने वाले समय कलयुग में धर्म शास्त्र को मानने वाले न के बराबर होंगे पाप कर्म में लिप्त उन कलयुगी मनुष्यो के लिए कोई ऐसा उपाय जिसमे उनका कल्याण हो सके, तो सूत जी ने कहा कि हे ऋषियों यही प्रश्न लोक कल्याण के लिए देवरिषि नारद ने भगवान नारायण से किया था तो प्रभु ने एक व्रत विधि पूर्वक बताया था, इस व्रत को करने से मनुष्य के वनवांछित कार्य सिद्ध होगें और वह व्रत इस तरह है,इसको करने की यह विधि है, इस दिन यह करना वर्जित है, यह करना जरूरी है आदि आदि।

इस व्रत का समापन ऐसे होता है, पूरे दिन में व्रती को किस मंत्र का जाप करना है किस किस को भोजन कराना है, क्या दान करना है, इनमे से कोई काम क्या पंडित जी बतलाते हैं बिलकुल नहीं, अगर कोई विद्वान पंडित बताते भी हैं तो हम सुनते नही और उल्टे उनको ही बोलते हैं आप देख लो क्या विधि है जो समान लगे बता दो मैं लाके दे दूंगा बस आप बताओ कि कथा कितने बजे सुनाओगे, जल्दी आ जाना दस बजे कथा समाप्त हो जानी चाहिए बस।

अब जब आप व्रत करना नही चाहते, क्या कैसे कब पूजा होगी जानना नही चाहते तो पंडित जी भी सब कुछ छोड़कर सीधे क्था पर आ जाते हैं कि साधु बनिया ने कथा सुनी, कलावती लीलावती ने सुनी, कोई पंडित जी से पूछ लो उन्होंने क्या पूजा की मुख्य काम की बात तो वह है जो आज कल के मंदिरों में ट्रस्ट के ट्रस्टीयो के शोषण का शिकार चार पांच सौ पगार पाने वाले बेचारे नाम के पंडित न तो जानते हैं और न हम लोग ही जानना चाहते है। बस कथा पढ़ी, पांच अध्याय सुनने में भी थोड़ी देर हुई तो यजमान पंडित पर गर्म होता है जल्दी करो और तो और अब तो शादी में भी जल्दी करो बोलते हैं। यजमान कितना भी अरबपति हो बैंड पर नाचते हुए हजारों रुपए लूटा देगा हालांकि बैंड वाले अपने पूरे तय पैसे अलग से लेंगे, घोड़ी वाला घोड़ी को आगे जभी बढ़ाएगा जब 5 से 11 हजार ले लेगा, किन्नर की भी फीस है इक्किस हजार से कम नहीं, हलवाई, होटल कुक सब लाखो खर्च करेगे किंतु शादी कराने वाले पंडित जी अगर कहेंगे कि रात भर शादी कराई तो आज की महगायी में ग्यारह हजार दे दो तो हम उसको लुटेरा, पाखंडी कुछ भी कहने में संकोच नही करते। इसलिए पढ़े लिखे स्वाभिमानी आचार्य तो पुरोहित कर्म करते नही, या फिर जैसा माथा वैसा टीका, अपनी जगह किसी वैसे पंडित को भेज दिया। कुल मिलाकर हम लोग खुद ही अपने संस्कार पूजा पाठ छोड़ चुके हैं और हमारी पूजा एक मात्र आरती करना रह गई है, वह भी किसी फिल्मी गायक द्वारा गाए हुए सीडी कैसेट पेन ड्राइव को लगाकर सुनते हैं थाली को घुमाते है और सारे दोस्त रिश्तेदार को पकड़ाए चले जाते है,और बाद में उसको सबके सामने क्यों घूमाया जाता है आप सभी जानते हैं।

यह तो हुई पूजा पाठ और पंडित जी की इसमें पंडित जी से ज्यादा यजमान लोग जिम्मेवार हैं अगर पंडित जी संतोषी हैं दक्षिणा मांगना गलत मानते हैं और यजमान पर छोड़ देते हैं तो विश्वास कीजिए यजमान उनको एक मजदूर की मजदूरी जो वह सात घंटे करके लेगा उतनी मजदूरी भी नही देगा और यह परम सत्य है,अगर मांगेगा तो लुटेरा ठग आदि शब्दो से नवाजा जाएगा, अगर कार्यक्रम करने न जाए तो पड़ोस के यजमान हैं पंडित को घमंडी आदि बोलेंगे, इस लिए पंडितो ने कुछ खास काम किए

1) पूजा स्थल पर ज्यादा से ज्यादा मूर्तियां या स्थान जिन पर दक्षिणा चढ़ाना आवश्यक बताया।

2) संकल्प, आवाहन इत्यादि से बार बार दक्षिणा की बात करना।

3) आरती अंत में अवश्य करना और थाल को उपस्थित सभी लोगो के समक्ष भेजना

यह सब करके दाना दाना जोड़कर किसी प्रकार अपनी मजदूरी निकलने का प्रयास भर है।

आरती = आरती जिसमे यजमान, ग्रहस्थ, गृहिणी, अपने गृह में प्रवेश कर रहे,  आगंतुक, अतिथि, जिसमे देवता,मनुष्य रिश्तेदार कोई भी हो सकता है उसके स्वागत में खुशी की भावना के साथ उसकी इज्जत करने, उसकी नजर उतारने,उसकी पूजा, सम्मान करने की भावना के साथ घर के चौखट में प्रवेश के पूर्व की जाने वाली आरती ही आरती है।

यह आरती परदेश से लौट रहे अपने पति के लिए गृहिणी करती है, यह पत्नी का पति के प्रति सम्मान होता है, यह आरती एक माता अपने परदेश गए बेटे,शिक्षा प्राप्त कर लौटे बेटे,ससुराल से लौटी बेटी, ममाने में प्रथम प्रवेश कर रहे बेटी की संतान, बेटे की संतान,के लिए माता दादी या नानी करती है, इसी प्रकार पहली बार घर में आ रही बहू,बेटी का स्वागत उसकी सास या ननद करती हैं।

यही सम्मान भगवान की आरती का भी होता है अर्थात आप भगवान का वेलकम स्वागत करते हैं। और इस खुशी के स्वागत को आरती कहते हैं।

आरति = का मतलब दुःख, आर्तनाद करना होता है। जब किसी सबल व्यक्ति द्वारा किसी निर्बल को सताया जाता है और वह निर्बल व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति से मदद की गुहार लगाता है तो आर्त नाद करता है, आरत नाद का मतलब करुण पुकार होता है।

जब मुसीबत ऐसी हो कि निर्बल की पुकार  कोई तीसरा भी सुनने को तैयार नहीं होता तो अंतिम उम्मीद परमात्मा ही है अगर कोई व्यक्ति सारी उम्मीद खो देता है और अपने आपको ईश्वर पर आश्रित कर देता है सिर्फ उनको पुकारता है तो वह अवश्य आते हैं किसी न किसी रूप में आरति नाद  सुनकर प्रभु नंगे पैर दौड़ते हुए आते हैं।

जैसे प्रभु ने गजराज की आरति सुनी और गरुण को छोड़कर नंगे पैरों आए, जैसे द्रोपदी की आरति सुनकर साड़ी बढ़ाने लगे, जैसे गीधराज की आरति सुनकर रामजी वहां पहुंचे।

अब व्याख्यान को ज्यादा विस्तार न देते हुए सीधे शब्दो में अगर आपसे कोई सहायता मांगता है तो वह आपसे आरति करता है, अगर कोई आपका खुशी से स्वागत करता है तो आपकी आरती करता है और यही मुख्य फर्क है आरती और आरति में दोनो का मतलब बिल्कुल भिन्न है। आरती  का मतलब आरती गाना घंटा बजाना, पैसा वसूलना नही था, हमारे किसी धर्म ग्रंथ में भगवान या उनकी मूर्ति पर कोई खाद्य पदार्थ ,धन पैसा स्वर्ण आदि चढ़ाने का कोई विधान कभी भी कही भी नही लिखा है। आश्रम या मंदिर के पुजारी पंडित और उनके परिवार का भरण पोषण करना उस जगह गांव, नगर राज्य के लोगो का दायित्व होता था किंतु जब से लोगो ने मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाने लगे पूजा एक व्यापार हो गया और वहीं से  ब्राह्मण पतित होने लगा,अन्य लोग मंदिरों के ट्रस्टी बन कर कमाने लगे aur kamayi ka jyadatar bhag muslim Shashak lete the, Fir Angrejo ne kamaya, फिर bhala Nehru Ji ki सरकार के भी मुंह में पानी kyon na aata आया,कमाऊ मंदिर अपने undar में ले लिए, और aaj tak hamare chadhawe ka paisa Sarkar khati hain, जिनकी मेहनत hai aur jin ke liye ham dete hain उन पुजारियों का शोषण हो रहा है।

मंदिरों की कमाई चढ़ावे का पैसा ट्रस्ट सरकार के पास जाता है, उस पैसे को जो हम लोग मंदिर के पुजारियों की रोजी रोटी मंदिर के रख रखाव आदि के लिए देते है उसका दुर्प्रयोग होता है, अतः मंदिरों में धन पैसा रुपिया दान की जगह मंदिरों में अन्न दान करो जो मंदिरों के द्वारा किन्ही गरीब बुजुर्ग रोगी अपाहिज की भूँख मिटाएगी,धन चढ़ाओगे तो ट्रस्ट वाले खायेगे, सरकार के द्वारा मौलानाओं को Maulaviyon ko पगार जायेगी आपके पुजारी भुंखे के भूँखे रहेंगे।

उम्मीद करते हैं कि आपको आरती और आरति का मतलब और अंतर समझ में आ गया होगा अस्तु जय सियाराम।

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