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कैसे बनी विश्व की आदि भाषा संस्कृत ? जाने पूर्ण सत्य !
विश्व की आदि भाषा संस्कृत है। उसमें वेदों के बाद इतिहास लिखा गया। जो संस्कृत क्षेत्र से अनभिज्ञ हैं वे जाने कि आज भी संस्कृत विश्वविद्यालयों में “इतिहास पुराण” विभाग में रामायण, महाभारत और १८ पुराणों का अध्यापन होता है। वेद, इतिहास और पुराणों को आर्ष साहित्य कहते हैं। वेद मानव रचित नहीं माने जाते हैं। इसलिए संस्कृत भाषा की प्रथम रचना रामायण को माना जाता है। इस रचना के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि, महर्षि अगस्त्य है और स्वयं पवनपुत्र हनुमान जी हैं, और यह सभी श्री रामचन्द्रजी के समकालीन थे। वाल्मीकि जी के आश्रम में रहकर ही रामायण को कण्ठस्थ कर लव और कुश ने इस काव्य को रामजी को सुनाया था। इस कारण रामायण को आदि काव्य माना जाता है।
काल क्रम वेदो और उपनिषदों के अनुसार
काल –
राम त्रेतायुग में हुए। आज कलियुग का ५१८३वा वर्ष चल रहा है कुछ विद्वानों के अनुसार अभी ७१२२ वर्ष हुए है उसमें द्वापर के ८ लाख ६४ हजार जोड़ देने पर कुल ८,७१,१२२ वर्ष होते हैं। यह त्रेता के समाप्ति का वर्ष है। उसके पहले १२ लाख ९६ हजार वर्ष त्रेता युग का काल आता है। इसलिए यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि आज से २१ लाख, ६७ हजार, १२२ वर्ष पूर्व त्रेता युग आरंभ हुआ और ८ लाख ७१ हजार १२२ वर्ष पूर्व समाप्त हुआ। इसके बीच रामायण घटित हुआ और काव्यरूप में आज भी जीवित हैं। इतना लंबा इतिहास किसी काव्य या कवि का नहीं है। इसलिए वाल्मीकि विश्व के आदि कवि कहे गए हैं। उनके समकालीन महर्षि अगस्त्य ने भी रामायण की रचना की थी किन्तु उन्होंने अपनी रचना बाल्मीकि की रामायण से थोड़ा बाद की थी तब तक भगवान श्रीरामजी बाल्मीकि रामायण को राजकीय मान्यता दे चुके थे और यही बात हनुमान जी के रामायण पर भी लागू हुई थी। हनुमान जी ने अपनी सारी रचनाएं पर्वतों पर लिखी थी और उन्होंने नाराज होकर अपनी रचनाएं समुद्र में फेंक दी थी, उनके लिखे कुछ पर्वत महर्षि भारद्वाज को मिले थे जिनको एकत्र कराकर उन्होंने और उनके शिष्यों ने आगे चलकर विभिन्न रामायण कथाओं की रचना की थी। महर्षि अगस्त्य दक्षिण में चले गए थे और उन्होंने अपनी रचना को तमिल भाषा में लिखा था। महर्षि बाल्मीकि की रचना जिसको राजकीय मान्यता पहले से मिली हुई थी और सारी रचना संस्कृत में थी और उनकी रचना महर्षि अगस्त्य की रचना से चार वर्ष पूर्व और हनुमान जी की रचना से ६ वर्ष पूर्व हो गई थी।
हनुमान जी ने अपनी लिखी रामायण समुद्र में क्यों फेंकी ? संस्कृत के अलवा कितनी भाषाओ में लिखी गई रामायण !
हनुमान जी ने तो अपनी मेहनत को क्रोध वश समुद्र में फेंक दिया किन्तु महर्षि अगस्त्य ने संस्कृत रामायण की राजकीय मान्यता न मिलने पर उन्होंने दूसरी भाषा में रचना की। महर्षि अगस्त्य की रचना सुनकर महर्षि बाल्मीकि ने अपने रामायण में जो अधूरापन था उसको ठीक करने के लिए उन्होंने पुनः एक दूसरी रचना आध्यात्म रामायण की रचना की थी।
अश्विन शुक्ल पौर्णिमा उनका जन्म दिन है।
स्थान –
बिहार प्रान्त के पश्चिम चम्पारण जनपद में वाल्मीकि नगर आता है। वहां तमसा नदी भारत और नेपाल की सीमा बनी है। तमसा के उस पार वाल्मीकि आश्रम है। तमसा के तट पर ही क्रौंचपक्षी के वध के कारण विलाप करने वाली क्रौंची (मादी) के करुण आक्रंदन को देखकर शोक से वाल्मीकिजी के मुख से काव्य फूट पड़ा। वह अनुष्ठुप छंद में निबद्ध है। रामायण के कुल ६ काण्ड और २४ हजार श्लोक है।
व्यवहार की भाषा संस्कृत ही थी ! इसका प्रमाण कहाँ मिलता है ?
संस्कृत भाषा में लिखने का कारण उस समय व्यवहार की भाषा संस्कृत थी।
इसके लिए उदाहरण हेतु हम किष्किन्धा कांड के तीसरे सर्ग में राम, लक्ष्मण और हनुमान का प्रथम बार संवाद होता है। ऋष्यमूक पर्वत पर बैठे राजा सुग्रीव और प्रधान हनुमान अपरिचित और सशस्त्र दो युवकों को दूर से आते देखकर चिंतित हो उठते हैं। कारण वाली से युद्ध में परास्त होकर राज्यविहीन बने, पर्वत के आश्रय से रहने वाले सुग्रीव को सर्वदा मृत्युभय सताता था। वें दोनों शत्रु है या मित्र यह जानना आवश्यक होने के कारण सुग्रीव पता लगाने के लिए अपने प्रधानमंत्री श्रीहनुमान जी को उनके पास भेजते हैं।
हनुमानजी स्व-रूप में प्रकट न होकर उस समय के समाजनियमों के अनुकूल ब्राह्मण रूप में राम और लक्ष्मण के पास जाते हैं और अपना परिचय सु्ग्रीव के प्रधानमंत्री के रूप में देते हैं। उस काल में राजदूत और ब्राह्मण दोनों अवध्य माने जाते थे। सुग्रीव का हनुमानजी के द्वारा किया गया गुणगान सुनने के पश्चात् परिचय देने की बारी राम और लक्ष्मण की होती है। श्रीराम यह कार्य लक्ष्मण को सौंपकर अपना अभिप्राय नीचे लिखे श्लोकों में व्यक्त करते हैं –
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिण:।
नासामवेदविदुष: शक्यमेवं प्रभाषितुम्।।२८।।
अर्थ – जिसप्रकार का भाषण इन्होने हमसे किया है वैसा ऋग्वेद, यजुर्वेद, और सामवेद के जाने बिना कोई कर नहीं सकता।
नूनं व्याकरणं कृत्तमनेन बहुधा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किञ्चिदपशब्दितम्।।२९।।
अर्थ – अवश्य ही इन्होंने सम्पूर्ण व्याकरण अधिक बार सुना है। कारण जितनी वार्ता इन्होंने की उसमें कोई अशुद्धी नहीं थी।
न मुखे नेत्रयोर्वाऽपि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।
अन्येष्वपि च गात्रेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।३०।।
अर्थ – बोलते समय इनके नेत्र, ललाट, भौंहे तथा अन्य शरीर का कोई अवयव विकृति को प्राप्त नहीं हुआ।
अविस्तरमसन्दिग्धमविलम्बितमद्रुतम्।
उरस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमे स्वरे।।३१।।
अर्थ – इन्होने अपने कथन को न तो लंबा खींचा (जिसे सुनने से जीव ऊब जाय) और न ही इतना संक्षिप्त किया ताकि समझने में भ्रम हो। अपने कथन को व्यक्त करते समय इन्होंने न तो शीघ्रता की और न विलम्ब ही किया। इनके कहें वचन हृदयस्थ और कण्ठगत है (अर्थात् बनावटी नहीं है अथवा जहां से स्वर और व्यंजन उठना चाहिए उसे इन्होने वहीं से निकाला है) इनका स्वर भी मध्यम है।
संस्कारक्रमसम्पन्नामद्रुतामविलम्बिताम्।
उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहारिणीम्।।३२।।
अर्थ – इनकी वाणी व्याकरण से संस्कारित, क्रमसम्पन्न और न धीमी है और न गतिमान् है। इनकी वाणी कल्याण करने वाली और हृदय का हरण करने वाली है।
अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया।
कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि।।३३।।
अर्थ – छाती, कण्ठ और सिर इन तीन स्थानों से निकली हुई, इनकी अद्भुत वाणी, हाथ में तलवार लिये शत्रु के कठोर हृदय को भी पिघला देगी, औरों की तो बात ही क्या है।
उपर्युक्त संवाद से यह ध्यान में आता है कि हनुमानजी ने संस्कृत में बात की थी और दोनों अयोध्यावासियों को वह न केवल समझ में आयी अपितु वें सुनकर प्रभावित भी थे। यदि दोनों ने अपनी-अपनी प्राकृत भाषा में संवाद किया होता तो किसके समझ में आता?
दूसरा – रूप या वेश का प्रभाव तभी तक रहता है जब तक पहला वाक्य मुख से न निकले। बाद में तो वाणी ही प्रभावी रहती है।
मूल पढ़ना क्यों महत्व पूर्ण है ?
मूल पढ़ने का कारण –
प्रचलित रामकथा और वाल्मीकि के द्वारा लिखे रामायण में भेद है । जैसे नाशिक की पञ्चवटी में घटित ‘लक्ष्मण रेखा’ का प्रसंग वाल्मीकि रामायण में नहीं है। इसलिए मूल पढ़ना चाहिए। ऐसी प्रक्षिप्त घटनाओं को सत्य मानकर लोग व्यर्थ विवाद में उलझते हैं।
हनुमानजी को बंदर कहना (Monkey God) याने अपने श्रेष्ठ पुरुषों का उपहास करना है। जो मूल नहीं पढ़ते वें ऐसी बातें लिखते या बोलते हैं। उपर श्रीराम के मुख से हनुमानजी वेदविद्या सम्पन्न थे यह प्रमाण संदर्भ के साथ लिखा है। जो वेदाध्ययन के लिए गुरुकुल में जाता था उसका उपनयन संस्कार होना अनिवार्य था। तो क्या वानरों का उपनयन होता था ? प्रमाण वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा काण्ड में २५ वें सर्ग में उपलब्ध है । प्रसंग है वाली के दाह-संस्कार का। वाली का बेटा अंगद यह कार्य करते समय अपने यज्ञोपवीत का अपसव्य करता है। यज्ञोपवित सर्वदा बाये कंधे पर रहता है। श्राद्ध के समय उसे दाये कंधे पर लेते हैं, जिसे अपसव्य कहते हैं।
ततोऽग्निं विधिवद्दत्त्वा सोऽपसव्यं चकार ह।
पितरं दीर्घमध्वानं प्रस्थितं व्याकुलेन्द्रियः।। ५०।।
खगोलशास्त्री वाल्मीकि –
महर्षि वाल्मीकि एक महान् खगोलशास्त्री थे। उन्होंने श्रीराम के जीवन से सम्बंधित सभी महत्वपूर्ण घटनाओं के समय आकाश में देखी गई खगोलीय स्थितियों का विस्तृत एवं क्रमिक वर्णन रामायण में किया है, जैसे – रामजन्म का समय दोपहर १२.०० बजे, पुष्य नक्षत्र, प्रतिपदा तिथि, शुक्लपक्ष, चैत्र मास, वसन्त ऋतु, उत्तरायण।
राष्ट्रीय एकात्मता स्थापित करनेवाला ग्रंथ –
उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक सबको जोड़ने वाले ग्रंथ का नाम रामायण है और उसके रचयिता वाल्मीकि है। वाल्मीकि ऋषि की यह रचना कालजयी है। “न भूतो न भविष्यति” ऐसा ऐतिहासिक ग्रन्थ उन्होंने लिख डाला। उनके बाद अनेक कवियों ने काव्यों की रचनाएं की हैं। किन्तु आज भी जो भारतीय जीवन में रामायण का महत्त्व है, वह अन्य ग्रंथ का नहीं है।
ऐसी कई विशेषताओं से युक्त वाल्मीकि रामायण हमें पढ़ना चाहिए। मूल समझने के लिए संस्कृत आनी चाहिए। यह हमारे पूर्वजों के हम पर उपकार है कि जिन्होंने इतने लाखों वर्ष तक इस जनभाषा को बदलने नहीं दिया। नहीं तो कई प्राचीन भाषाएं अब समझी नहीं जाती। केवल उसके अनुवाद से ही काम चलाया जाता है। अनुवाद करने वाले का भाषाज्ञान जितना होगा वैसा अनुवाद होता है ।
ऋषि वाल्मीकि को शत-शत नमन।