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महाभारत युद्ध में कुछ राजा मज़बूरी में दुर्योधन के पक्ष में लड़े क्या थी उनकी मजबूरी ! In the Mahabharata war, some kings fought on the side of Duryodhana under compulsion, what was their compulsion?
अज्ञातवास के बाद जब पांडवो ने दुर्योधन से अपने इंद्रप्रस्थ राज्य की मांग की तो दुर्योधन ने कहा कि युद्ध के बिना वह सुई की नोक जितनी जमीन भी पांडवो को नही देने वाला, यहां तक भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं उनके दूत के रूप में हस्तिनापुर नरेश की राज्यसभा में 5 पांडवो के लिए सिर्फ 5 गांव देने की मांग रखी लेकिन दुर्योधन की हठधर्मी के कारण धृतराष्ट्र ने वह भी देने से मना कर दिया। अतः फिर युद्ध होना निश्चित हो गया और दोनो पक्ष युद्ध के लिए सभी राजाओं को अपनी अपनी तरफ से युद्ध करने के लिए बुलाने लगे, दोनो ही पक्ष अपनी अपनी बात उनके समक्ष रखते और वह अपनी नैतिक जिम्मेदारी, हस्तिनापुर राज्य के या पांडवो के, साथ या विरोध में युद्ध के लिए स्वीकृति देते थे।
कृपया आप हमारे वीडियो महाराज पांडु की दिग्विजय यात्रा के सदर्भ लें जिसमे उन्होंने जितने राज्य जीते थे उनमें से कुछ राज्य उन्होंने हस्तिनापुर में मिला दिए थे कुछ को स्वतंत्र छोड़कर उनसे युद्ध की स्थिति में हस्तिनापुर के साथ रहने का करार समझौता किया हुआ था। अतः बहुत से राजा जो पांडवो को धर्म पर चलने और उनको सही मानते हुए भी बेचारे दुर्योधन की तरफ से युद्ध करने को विवश थे उनमें एक राजा शल्य जो पांडवों के सगे मामा थे, अयोध्या नरेश और भगवान श्रीराम के अंतिम वंशज बृहदबल थे यह पांडवो के पिता महाराज पांडु के सबसे प्रिय मित्र थे जो पांडवो को अपने पुत्र ब्रह्तक्षण के समान मानते थे और जिन्होंने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अपनी रानी और पुत्र के साथ भाग लिया था।
श्रीकृष्ण ने महाभारत में क्यों नहीं उठाये कौरवों के खिलाफ अस्त्र,क्या नाम था रामजी के वंशज का जिसने लड़ा महाभारत का युद्ध, Why did Shri Krishna not take up arms against the Kauravas in the Mahabharata, what was the name of the descendant of Ramji who fought the war of Mahabharata
मथुरा के राजा कंश भी पांडु से पराजित हुए थे अतः उनके द्वारा किए गए करार के कारण मथुरा अर्थात द्वारका की नारायणी सेना कृतवर्मा के अधीन युद्ध में दुर्योधन की तरफ से लड़ रही थी।
कुछ राजा जिनकी हस्तिनापुर या इंद्रप्रस्थ से न दोस्ती थी न दुश्मनी वह लोग खुद को युद्ध से अलग रख सकते थे उनमें से महाबली रुक्मी जो भगवान कृष्ण के साले और देवी रुक्मणि के भाई थे उन्होंने युद्ध में भाग न लेने का निर्णय लिया। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने युद्ध न करना पड़े इसलिए द्वारका की सेना के पदों से त्यागपत्र दे दिया था और व्यक्तिगत निर्णय लिए थे एक तो तीर्थयात्रा पर चले गए और दूसरे ने शस्त्र न उठाने की शपथ के साथ अर्जुन के सारथी बन गए।
उडुपी के राजा ने महाभारत में क्या भूमिका निभाई और भगवान कृष्णा ने उनकी कैसे मदद की , What role did the king of Udupi play in the Mahabharata and how did Lord Krishna help him?
ऐसे ही आधुनिक काल में कर्नाटक के उद्दुपी शहर जो उस समय उडुपी राज्य था के राजा स्वाधीन थे दोनो की तरफ से मदद के लिए प्रार्थना गई थी और वह सेना के साथ कुरुक्षेत्र में आए लेकिन जब उन्होंने देखा कि यहां तो सेनाओं के सागर हैं तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण और भीष्म पितामह की उपस्थिति में दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनो से पूछा कि इतने लोग तो बुलाए जब युद्ध होगा तो इनके भोजन का प्रबंध कैसे करोगे?
युद्ध शुरू हुआ, पहले दिन सबका खाना बना, शाम को कितने लोगो का खाना बनाया जाए कि अन्न खराब न हो अतः राजा ने अपने इष्टदेव साक्षात श्रीकृष्ण को याद किया। भगवान आ गए और वहां पर रखी हुई मूंगफली खाने लगे उन्होंने 31 मूंगफली खाई जिनके छिलके गिनकर राजा ने 31000 लोगो का भोजन कम बनवाया और भोजन बिलकुल सही निकला न कम न ज्यादा।
युद्धक्षेत्र में सफ़ेद कपडे पहने हुए लोगो पर दोनों पक्ष की सेनाये हमला नहीं कर सकते थे क्यों? Why could the armies of both the sides not attack the people wearing white clothes in the battlefield?
सफेद रंग का झंडा, सफेद कपड़ा तभी से शांति का रंग निर्धारित कर दिया गया। पितामह भीष्म बोले कि राजन आपने हम सभी का ह्रदय जीत लिया आपके कुशल प्रबंधन से सभी मेहमानों मेजबानों को भोजन और चिकित्सा संबंधी दायित्व से दोनो पक्ष संतुष्ट हो गए। फिर विनोद में भगवान कृष्ण से बोले कि सफेद रंग के कपड़े तो मैं भी पहनता हूं इसलिए माधव क्या मेरे ऊपर भी लोग प्रहार नही करेगे तो माधव ने कहा मुझसे क्यों पूछ रहे हो मैं तो निशस्त्र हूं मैं किसी को भी कैसे मार सकता हूं वैसे आप सफेद कपड़े पहनोगे लेकिन आपका मुकुट,कवच,अस्त्र शस्त्र, रंगीन होंगे। भक्त भगवान के हास्य विनोद को सुनकर सभी हंसने लगे।
अतः प्रत्येक शाम को कृष्ण जी की राजा याद करते थे वह राजा से गप्पे मारते हुए मूंगफली खाते थे उनकी एक मूंगफली का मतलब 1000 लोग थे अर्थात अगर इन्होंने 50 मूंगफली खाई इसका मतलब आज 50000 लोग मारे गए।
तुम दोनो भाई हो और भाईयो के बीच युद्ध होना ही नही चाहिए था लेकिन अगर युद्ध हो रहा है तो क्या यह सभी भूंखे युद्ध करेगे अतः मैं अपनी सेना के साथ दोनो दलों के भोजन का प्रबंध अपने हाथ में लेता हूं। हमारी सेना के सभी सैनिक और मैं स्वयं स्वेत (सफेद) पोशाक में रहेंगे और सफेद पोशाक वाले सैनिक नही अपितु सेवक का काम करेगे अतः कोई उन पर प्रहार नही कर सकता। दोनो पक्षों ने इस बात से हर्षित होकर सहमति दिया।
इस तरह पूरे 18 दिन भगवान युद्ध बंद होने के बाद मूंगफली खाकर मरने वालो की संख्या बता देते थे। और अन्न की बरबादी बचा देते थे बचे हुए लोगो को खाना दिया जाता था।
उडुपी की उत्तम खानपान व्यवस्था का रहश्य यहाँ है, Here lies the secret of Udupi's excellent food system.
युद्ध समाप्ति के बाद जब युधिष्ठिर सिंहासन पर बैठे और उन्होंने भोजन प्रबंधन के लिए उडूपी नरेश की तारीफ करते हुए धन्यवाद करते हुए यह कार्य इतनी कुशलता से कैसे किया यह पूछते हैं तो उडुपी नरेश ने इस राज से पर्दा हटाया कि इसमें मेरा कोई रोल नहीं है सारा सीन तो भगवान श्रीकृष्ण ही क्रिएट करते हैं,हम सब तो सिर्फ माध्यम हैं काम तो माधव करते हैं। मैने तो सिर्फ छिलके गिने और भोजन बनवाया। अपने आराध्य की आज्ञा मानी, सारे कार्य को भी होते हैं हम नही करते हमसे कराए जाते हैं और कराने वाले प्रभु श्रीकृष्ण हैं।
आपने युद्ध किया और अपने से दो गुनी सेना वाले पक्ष को हराकर आप राजा बन गए तो जीत का श्रेय किसको दोगे, तो युधिष्ठिर बोले निसंदेह भगवान श्रीकृष्ण।
माता कुंती कहती हैं कि हे माधव आप ने अपना वचन निभाया मेरे 5 पुत्रो को तात श्री, गुरु द्रोण,गुरु क्रिप, पुत्र कर्ण, जैसे लोगो के होते हुए बचाया भी और धर्म की रक्षा की। हे कृष्ण आप इन पर हमेशा अपना स्नेह बनाए रखना।
तो भगवान कृष्ण मूंगफली रोज खाते थे क्योंकि मूंगफली खाकर वह युद्ध में मारे गए लोगो की संख्या बताते थे। उडुपी नरेश से अच्छा भोजन न कोई बना सकता था न कोई इतने अच्छे से प्रबंध कर सकता था। 5000 साल के बाद आज भी कर्नाटक के लोग उड़ूपी नरेश की भगवान श्रीकृष्ण के साथ पूजा करते हैं और अपने घर, व्यापार को मैनेज करने की विनती करते हैं। देश के कोने कोने में उडुपी नाम से रेस्टोरेंट मिलते हैं यह सभी उन्ही उडुपी नरेश के सेना के वंशज अपने कार्य को बराबर आगे की पीढ़ी को हस्तांतरित करते चले आ रहे है।