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जो धारण करने योग्य हो वो धर्म है ! अच्छी बातें और आदते धारण करने योग्य है और बुरी नहीं ! धर्म व्यक्ति के विवेक पर आधारित होता है कैसे जानते है !
आदर्श धर्म को समझने के लिए सबसे पहले हमे सनातन संस्कृति हिन्दू संस्कृति को समझना जरूरी है और इस संस्कृति को जानने के लिए रामायण एक महान और आदर्श ग्रंथ है जिसमें हिन्दू संस्कृति का स्वरूप जगह जगह मिलता है।
हिन्दू शब्द कैसे बना? क्या है हिन्दू सभ्यता का इतिहास?
हिमालय का प्रथम “हि” और सिंधु का अंतिम अक्षर नधू लेकर हिन्धु शब्द और उसका अपभ्रंश हिन्दू शब्द है। हिमालय से सिंधु तक का भू भाग हिंदुस्तान वहां रहने वाले लोग हिन्दू या आर्य या श्रेष्ठ जाति कहलाते है!
इन आर्यों के रीति रिवाज चाल चलन रहन सहन खानपान आहार व्योहार जो स्वाभाविक कल्याणमय है ! इसीलिए इस संस्कृति को सदाचार कहा जाता है।
यह सनातन परम्परा इस लोक में और दूसरे लोक में मरणोपरांत कल्याण प्रद है। यह परम्परा अनादि काल से चली आ रही है इसीलिए इसे सनातन परम्परा या सनातन धर्म कहते है या हिन्दू धर्म कहते हैं।
भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता के श्लोक 4/1 में कहा है।
इमम विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमवय्यम।
विस्वानमनवे पाह मनुरिक्षकवेब्रवीत।
अर्थात यह ज्ञान हमने सबसे पहले सूर्य को सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु को और मनु ने अपने पुत्र राजा इकक्षाकु से कहा था। सनातन धर्म ईश्वर का कानून है और सदा ईश्वर में निवास करता है ! यह श्रष्टि के आदि में ईश्वर से प्रकट होता है और प्रलय के समय ईश्वर में ही समा जाता है। श्रीभगवान स्वयं कहते है ।
ब्रहम्णो हि ब्रहमणोहि प्रतिष्ठा हम मृतस्या व्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सूखस्यै कान्तिकसय च।।
क्योंकि उस अविनाशी परमब्रह्म और अमृत का नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का आश्रय मै (ईश्वर)हूं।
अतः इस शाश्वत धर्म को ईश्वर का स्वरूप ही कहा जाता है यह सदा से है और सदा रहेगा! इसीलिए इसको सनातन धर्म कहते है। यह कभी प्रकट रूप में रहता है कभी अप्रकटरूप में किन्तु इसका कभी विनाश नहीं होता। इसका केवल प्रादुर्भाव या तीरोभाव होता है। और जब जब ऐसा होता है ईश्वर किसी न किसी रूप में आकर उसको पुनर्स्थापित करते है।
रामायण में लिखा है
“जब जब होय धर्म कै हानी। बाढ़हि असुर अधम अभिमानी।
तब तब हरि धरि विविध शरीरा। हरहि सदा सज्जन की पीरा।।“
और
यही भगवान ने गीता में भी कहा है।
“यदा यदा हि धर्मस्य गलानिर भवति भारत,अभ्युथानम अधर्मस्य, तदात्मानम सृजम्याहाम,
परित्राणाय साधुनाम विनासाय च दुष्क्रताम, धर्म संस्थापनार्थाय समभवामि युगे युगे ।।‘
सदाचार कर्तव्य ही धर्म है अच्छे कर्म धर्म है! बुरे कर्म अधर्म है! ईश्वर द्वारा बताए हुए वेदों शास्त्र सम्मत सदाचार महापुरुषों द्वारा आचारित कर्म करना उनका समय अनुसार अनुकरण करना धर्म है।
किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा बताने या नाम देने से कोई धर्म नही बन जाता ! कोई पाप को धर्म बताए तो वह धर्म नहीं हो सकता। धर्म का कोई नाम नहीं होता अपितु यह कर्तव्य है जैसे माता पिता के प्रति सेवा भाव उनकी हर आज्ञा पालन पुत्र का कर्तव्य है धर्म है। अपने बड़ों का आदर करना उनकी आज्ञा पालन सेवा करना धर्म है।
किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा बताने या नाम देने से कोई धर्म नही बन जाता ! कोई पाप को धर्म बताए तो वह धर्म नहीं हो सकता। धर्म का कोई नाम नहीं होता अपितु यह कर्तव्य है जैसे माता पिता के प्रति सेवा भाव उनकी हर आज्ञा पालन पुत्र का कर्तव्य है धर्म है। अपने बड़ों का आदर करना उनकी आज्ञा पालन सेवा करना धर्म है।
किसी निर्दोष को न मारना ना सताना धर्म है सदा सच बोलना धर्म है, पति के प्रति, पत्नी के प्रति, बच्चो के प्रति, समाज के प्रति, देश के प्रति और ईश्वर के प्रति जो कर्तव्य है उनका पालन करना ही धर्म है।
जो धारण करने योग्य है उसे धर्म कहते हैं इसलिए जैसा कि महाभारत में, गीता में और रामायण में और वेदो में पुराणों में लिखा है कि कर्म में लगे रहना, उदारता, दंड, सत्य, दान धर्म है! धर्म को निभाना चाहिए यानी कर्तव्य की भांति उसका पालन करना चाहिए!
आदर्श धर्म (adarsh dharm) का उल्लेख हमारे वेदों, उपनिषदों, पुराणों में महाभारत और सबसे अधिक रामायण में कदम कदम पर बतलाया गया है। आदर्श धर्म को जानने के लिए विभिन्न महापुरुषों ने समय समय पर खुद उस रास्ते पर चलकर उस रास्ते या धर्म को उदाहरण के साथ हम मनुष्यों को समझाया है। धर्म (dharm) का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो सबको संभाले हुए है।
धर्म (dharm) के नियमों का पालन करना ही धर्म(dharm) को धारण करना है जैसे ईश्वर प्राणिधान, संध्या वंदन व्रत, तीर्थ चार धाम, पंच यज्ञ, सेवा कार्य, कर्तव्य निर्वहन, पूजा पाठ, 16 संस्कार और धर्म प्रचार आदि।
धर्म वस्तुतः दो प्रकार के होते हैं : आत्मा का धर्म, शरीर का धर्म
एक आत्मा का धर्म : मतलब आत्मा सदैव परमात्मा को पाने का प्रयास करती है, क्योंकि आत्मा परमात्मा का ही अंश है! आत्मा कभी नहीं बदलती इसलिए उसका धर्म भी कभी नहीं बदलता कहने का अर्थ यह है! आत्मा हमेशा ईश्वर की आराधना करती है ! भक्ति करती है ! यही आत्मा का धर्म है !
शरीर का धर्म : शरीर पंचतत्व से बना है! इसका धर्म है निरंतर कर्म करना रामायण में लिखा है
“ क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा ! पंच रचित यह अधम शरीरा !!“
अर्थात पृथ्वी , अग्नि ,आकाश , वायु और जल इन् पांच तत्वों के सम्मिश्रण से यह नाशवान शरीर बना है और इस शरीर की उपयोगिता तभी तक होती है जब तक इसके अंदर आत्मा का वास होता है!
ऊपर बताए गए दोनों धर्मों का अर्थ मात्र इतना स्पष्ट करना है कि शरीर आत्मा और पंच तत्वों का मेल है! दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं , आत्मा अपने धर्म का पालन शरीर के माध्यम से ही कर सकती है!
अगर शरीर साथ नहीं देता तो आत्मा अपने धर्म का पालन नहीं कर सकती ठीक उसी प्रकार शरीर भी बिना आत्मा कुछ भी नहीं है एक दिन भी वह नाशवान शरीर काम का नहीं रह सकता उसके सभी पांचो तत्त्व अलग अलग होकर अपने मूल रूप में चले जायेगे .
अतः शरीर और आत्मा एक दूसरे के बिना कोई अस्तित्व नहीं रखते , हाँ चूँकि आत्मा परमात्मा का अंश है इसलिए अजर अमर है उसका कभी नाश नहीं होता है अतः वह एक शरीर के नष्ट हो जाने पर दूसरे शरीर को ढूंढता है!
जैसा की भगवन श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा है आत्मा अजर अमर है
“नैनं छिदन्ति शस्त्राणि , नैनं दहति पावकः ,
न चेनम क्लेदयन्त्यापो , न शोषयति मारुतः “
आत्मा को किसी शस्त्र द्वारा छेदा नहीं जा सकता , न इसको कोई अग्नि जला सकती है , न इसको कोई जल डूबा सकता है , न इसको कोई ज्वर ताप आदि लग सकता है और न ही कोई वायु इसको सूखा सकती है , अर्थात आत्मा अजर अमर है !
चूकि आत्मा अजर अमर है परन्तु वह शरीर के बिना कोई कर्म नहीं कर सकती यह भी सच है! अतः धर्म और कर्म दोनों ही शरीर के माध्यम से ही हो सकते है! इसीलिए मैंने आपको धर्म या कर्म को दो भागो में बिभक्त करने की बात कर रहा हूँ !
पहला तत्व है ईश्वर की उपासना :
आत्मा का प्रथम और अंतिम लक्ष्य अपने परमात्मा को पाना या उसमे समाहित हो जाना होता है ! उसके लिए आत्मा को अपने शरीर की सहायता से परमात्मा की जप , तप , यज्ञ , हवन , पूजा , सेवा , और भजन कीर्तन के द्वारा आराधना करना होता है!
इन सभी रास्तो में से कौन सा रास्ता ईश्वर प्राप्ति में सहायक है! उसका निर्णय भी आत्मा और शरीर के समिश्रण से बने व्यकित विशेष के अपने अधिकार क्षेत्र में आता है ! लक्ष्य सबका एक है – रास्ते अनेक हैं!
सभी रस्ते ईश्वर के पास ही जाते हैं! ठीक उसी प्रकार जैसे सभी नदियों को अंत में मिलना तो सागर से ही होता है! कोई गंगा नदी है! जो डायरेक्ट मिलती है ! तो कोई यमुना , गोमती , या अन्य सहायक नदिया है ! जो जाकर गंगा में मिलती हुए फिर सागर में मिलती हैं !
जप-तप व्रत करके भी इस्वर को प्राप्त करोगे ,यज्ञ हवन पूजा पाठ करके भी ईश्वर को प्रसन्न करोगे , सेवा भजन कीर्तन द्वारा भी ईश्वर की ही उपासना करोगे ! यह आप के ऊपर निर्भर करता है की आप को कौन से मार्ग से जाना है !
दूसरा तत्त्व है सत्य (Truth) :सत्य बचन बोलना दूसरा मुख्य धर्म है! सत्य की हमेशा जीत होती है ! इसके लिए महान विद्द्वान रावण ने लक्ष्मण जी को अपने अंतिम क्षणों के उपदेश में बोलै थे ! सत्य वचन बोलना पहला धर्म है सत्य की हमेशा जीत होती है उपदेश में बोला था:
धिग बलम मिथ्या बलम, सत्य तेजो बलम बलम !
सत्य वाक्य कृपाणेन छिंदंति पुलुनदुऐव ब्रह्मांड वा !!
अर्थात झूठ के कोई ताकत नहीं होती जबकि सत्य एक तेज है सभी बलों में ( ताकत) में सर्वश्रेष्ठ बल है ! क्योंकि सत्य के १ वाक्य रूपी कृपाण से या चाकू से हजारों झूठ रूपी प्याज के तरह कट कर सिर्फ शून्य रह जाता है !परंतु साथ में यह भी कहा गया है कि
“ सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात मां ब्रूयात सत्यम आप्रियम “
अर्थात सत्य तो हमेशा बोलना चाहिए पर उसकी भाषा मीठी हो! जो सुनने वाले को प्रिय लगे बुरी ना लगे ऐसा सत्य जो किसी को अप्रिय लगे नहीं बोलना चाहिए जैसे आप किसी अंधे व्यक्ति को अंधा कहते हो तो धर्म नहीं पाप अधर्म कर रहे हो उसकी आत्मा को दुखा रहे हो !
वह आपको कोई आशीर्वाद नहीं अपितु श्राप ही देगा परंतु अगर आप उसको कहते हो सूरदास जी या उसके साथ कोई प्रिय लगने वाले शब्द या रिश्ते के साथ बोलते हो तो वह कोई अच्छा आशीर्वाद ही देगा और और आपने अपने सत्य बोलने वाले धर्म का पालन भी कर लिया!
हमारे ग्रंथों में बहुत सारे सत्यवादी हुए हैं पर मुख्य रूप से दो का ही नाम लिया जाता है पहले सतयुग में सूर्यवंशी राजा हरिश्चंद्र का नाम लिया जाता है और दूसरे द्वापर युग में जेष्ठ पांडव युधिष्ठिर का नाम आता है!
हरीश चंद्र जी ने हमेशा सत्य बोला भले ही वह किसी को कड़वा लगा या अच्छा लगा परंतु वह हमेशा सत्य ही बोलते थे वैसे सत्य हमेशा कड़वा ही लगता है! किसी को अच्छा नहीं लगता यह हमारे समाज की विडंबना है राजा हरिश्चंद्र ने 999 यज्ञ करने के बावजूद अपने अंतिम समय में घोर कष्ट उठाए क्योंकि सत्यवादी होने की वजह से काफी लोगों ने उनको श्राप भी दिए थे!
जिसके परिणाम स्वरूप उनको कष्ट उठाने पड़े परंतु युधिष्ठिर ने हमेशा सच के साथ में दूसरे को प्रिय लगने वाली भाषा के साथ सच बोला उनको मांगने पर भी किसी ने कभी श्राप नहीं दिया यहां तक कि ध्रतराष्ट्र, गंधारी और शकुनि तक ने हमेशा उन्हें भले ही अनमने मन से किंतु आशीर्वाद ही दिया !
सत्य धर्म को अपनाने के कारण शरीर के साथ इस लोक से जाने वाले तो वह दूसरे व्यक्ति थे परंतु देवलोक में अपनाए जाने वाले पहले और अंतिम मनुष्य बने ! अत: सत्य ही धर्म है और धर्म ही सत्य है।
तीसरा तत्त्व है दान करना : हमारे ग्रंथो में हजारो महापुरष हुए हैं जिनको दानी , महादानी कहा गया है और उन्होंने दान के कारन ईश्वर को प्राप्त किया है!
उनमे से महाराज हरिश्चंद्र , ऋषि दधीचि -जिन्होंने समाज के कल्याण के लिए अपने जीवित शरीर की हड्डियों को दान कर दिया! कर्ण– जिन्होंने अपने जीवन की परवाह न करते हुए देवराज इंद्र को अपना कवच और कुण्डल दान कर दिए!
अतः दान धर्म का एक अपना महत्त्व होता है , इसमें अन्न दान, द्रव्य दान , हाथी दान , गौ दान , अश्व दान , भूमि दान आदि लेकिन इसमें सर्वोत्तम कन्या दान को माना गया है!
यह तत्व् भी वास्तव में आत्मा के ही धर्म मने गए हैं जो मानव शरीर की मदद से करने होते है!. अपने से कमजोर पर दया करना , उदारता दिखाना और किसी कमजोर को प्रताड़ित न करना आदि आत्मा को सुकून देने वाले कर्म हैं!
इसलिए इनको धारण करना उत्तम धर्म बतलाया गया है! जहाँ तक हो सके तो हिंसा से बचना चाहिए यह हमारे सनातन धर्म में लगभग सभी ग्रंथो में बतलाया गया है! शास्त्र कहता है की
” परेशाम उपकारः इति परोपकारः”
अर्थात किसी को बिना स्वार्थ के उसके ऊपर उपकार करना ही परोपकार कहा जाता है! सभी का कल्याण हो! सभी निरोगी हो! सभी सुखी हो! ऐसी विश्व कल्याण की भावना हमेशा प्रत्येक व्यक्ति का धर्म माना गया है!
मार्कण्डेय ऋषि ने कहा है
“न त्वम कामये राज्यम , न अपूरनम भवं ,
कामये दुःख तृप्तानां परणीनां दुःख मोचनं ”
हमारे सनातन धर्म में ही जयकारा नारा लगाया जाता है की विश्व का कल्याण हो , प्राणियो में सद्भावना हो और यही हमारे पूर्वजो ने बतलाया है की सभी प्राणियो पर दया करना हमारा धर्म है , जिसको मदद की जरुरत हो उसकी मदद करना धर्म है!
जीव हत्या पाप है क्योंकि श्रष्टि के सभी जीव उसी भगवiन के बनाये हुए हैं! अगर हम उनको जीवन दे नहीं सकते तो उनके जीवन को लेने का हमें कोई अधिकार नहीं है ! यही सब बाते हमारे सनातन धर्म को एक आदर्श धर्म बनाती हैं और यही एक मात्र सच्चा धर्म है !
अब हम नाशवान शरीर का क्या धर्म है ! जिसको अपनी आत्मा की मदद से पूरा करना शरीर का धर्म कहा गया है !
शरीर का मुख्य धर्म कर्म करना होता है , और कर्म भी वह कर्म जिनके करने से आत्मा को संतुष्टि मिले , और उसके उपरोक्त धर्मो के लक्ष्य प्राप्ति में सहायक हो ,
उपरोक्त शरीर के कर्तव्यों को पूरा करने के लिए मनुस्य को साम–दाम-दंड और भेद चारो रास्तो में जो भी उपयुक्त लगे और आवश्यकता के अनुसार उसको धारण करना चाहिए यही धर्म है!
इससे अपना स्वयं का और समाज का विनाश होगा! झूठ फैला कर यानी भ्रम द्वारा! क्रोध दिखाकर यानी गुस्से का प्रचार करके भड़का कर! अविद्या या अज्ञान को शस्त्र बनाकर :अज्ञानी व्यक्ति तर्क नहीं दे सकता! वह कुतर्कों के द्वारा चिल्लाकर गलत बात सही सिद्ध करने का प्रयास करता है! बात नहीं मानने की स्थिति में क्रूरता का सहारा लेता है अर्थात दूसरों को मारता पीटता नुकसान पहुंचाता है !
जिसका धर्म ऐसा है वह अपने और अपने समाज का उद्धार नहीं कर सकता! वह स्वयं को और समाज को नष्ट कर देता है इसीलिए हमारे वेदों में अत्यंत क्रोध अज्ञान क्रूरता को धारण करने योग्य अर्थात धर्म नहीं माना गया है !
मनुजी ने कहा था वेदः स्मृति: सदाचार: स्वस्य च प्रियमातमन:।
एतच्चतुरविधम प्राहु: सक्षातधर्मसय लक्षनम।।
अर्थात वेद स्मृति सत्पुरुषों के आचरण तथा अपनी आत्मा को प्रिय या उसका हित करने वाले कार्य धर्म के साक्षात लक्षण है। लोग धर्म से अज्ञान थे! अनपढ़ थे उन लोगो को धर्म से जोड़ने के लिए ईश्वर से जोड़ने के लिए सदियों पूर्व आदिकाल मे ईश्वर की पवित्र पत्थरो की मूर्तियां बनाकर उनको ईश्वर का प्रतीक बनाकर आस्था जगाई गई, इसके दो कारण है कि
धर्म कर्तव्य से जोड़ने वाले यह प्रतीक मन्त्रों से प्राण प्रतिष्ठा करके बनाते थे जिसमें ईश्वर की उर्जा मिलती है! हमे धर्म की याद आती है!
दूसरा मनुष्य माया मोह में कितना ही क्यों न हो एक बार प्रतीक अर्थात ईश्वर की मूर्ति देखकर ईश्वर को अवश्य याद करेगा। अतः मूर्ति पूजा हमारे धर्म को मजबूती देता है! आस्था बढ़ाता है।
धर्म क्या है यह वाल्मीक रामायण आध्यात्म रामायण और रामचरित मानस में हर श्लोक हर शब्द में जगह जगह पर बताया हुआ है !रामायण पढ़ने के बाद आपको स्वतः ज्ञान मिल जाता है कि आखिर धर्म क्या है।
सिर्फ अपने विचारो के आगे कोई नाम लगा कर उसको धर्म बताना गलत हैं ! राक्षस धर्म है। बहुत से दुष्ट राक्षस लोग आए- गए सनातन धर्म को मिटाने के लिए राक्षस हमेशा से प्रयत्नशील रहे! लाखों वर्ष पूर्व भी आज भी पर मिटा न कभी पाए ना मिटा सकते है।
सनातन धर्म एक आदर्श है जो हिमालय से सिंधु (सागर) तक हर इंसान के अंदर समाया है! जिसको विधर्मी कम तो कर सकते है पर विनाश नहीं, वह हमेशा था है और रहेगा।
अस्तु जय श्री राम